Chalo, kahi sair ho jaye - 1 in Hindi Travel stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | चलो, कहीं सैर हो जाए... 1

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चलो, कहीं सैर हो जाए... 1



रोज एक ही माहौल में रहते हुए कभी-कभी जिंदगी बोझिल सी होने लगती है । ऐसे में अंतर्मन पुकार उठता है……चलो कहीं सैर हो जाये
घूमने फिरने के कई फायदे भी हैं ।नया माहौल, नए लोग, नयी जानकारियां हासिल होती हैं । सैर-सपाटे के साथ ही थोड़ा धरम करम भी हो जाये वैसे ही जैसे आम के आम गुठली के दाम, सो हम कुछ दोस्तों ने मिलकर जम्मू स्थित माता रानी के दर्शन की योजना बना ली सारी योजना बनाकर हमने मुंबई से जम्मू और जम्मू से मुंबई वापसी का स्वराज एक्सप्रेस में आरक्षण करा लिया। स्वराज एक्सप्रेस का एक ठहराव बोरीवली में भी है, जो कि हमारे शहर नालासोपारा से करीब है, सो यात्रा के दिन हम लोग सुबह करीब 7 बजे ही घर से निकल पड़े। 8 बजे से पहले ही हम बोरीवली पहुँच चुके थे । ट्रेन आने में लगभग आधे घंटे का समय अभी बाकी था।
तय समय पर ट्रेन आ गयी और हम लोग अपनी अपनी जगह पर बैठ भी नहीं पाए थे कि ट्रेन चल पड़ी । ट्रेन धीरे-धीरे सरक रही थी । उपनगरीय स्टेशन पीछे छूटते जा रहे थे । हम लोग अब अपनी अपनी सीट पर जम चुके थे । वैतरना स्टेशन गुजर जाने के बाद ट्रेन अपनी पूरी क्षमता से चलने लगी ।
ट्रेन का सफ़र भी कितना सुहाना और रोमांचक होता है ।बाहर देखने पर ऐसा लग रहा था जैसे नजदीक के पेड़ पौधे नदी नाले सब बड़ी तेजी से पीछे की ओर दौड़ रहे हों और दूर की पहाड़ियां कुछ दूर ट्रेन के साथ चलती प्रतीत होतीं और फिर थक कर कहीं पीछे ही छूट जातीं । बाहर के सुन्दर दृश्यों का अवलोकन करते हुए कई फेरीवालों की आवाज भी बीच-बीच में सुनाई पड़ जाती थी ।
गाँव शहर ‘वन उपवन सभी पीछे छोड़ते मनोरम दृश्यों का अवलोकन करते दिन शाम और फिर रात का आगमन होते ही खाने के जुगत की सोच बलवती हो गयी । भोजनयान के कर्मचारी को भोजन के लिए कहकर हम लोग आपस में कुछ हलकी फुलकी राजनीति की बातें करने लगे । विषय मिल जाने के बाद एक से बढ़कर एक तर्क के साथ दोस्ताना विवाद शुरू हो गया और पता ही नहीं चला कब कोटा आ गया ।
कोटा से रवाना होते ही कर्मचारी भोजन ले आया । भोजन के पश्चात् सभी अपने अपने मोबाइल के साथ व्यस्त हो गए और शनै शनै नींद के आगोश में खो गए । तड़के लगभग 5 बजे शोरगुल सुनकर नींद उचट गयी । खिड़की से बाहर देखने पर पता चला नई दिल्ली स्टेशन है । नींद तो खुल ही चुकी थी । राजधानी के दृश्यों को देखने के लालच से खुद को न बचा सका । फटाफट ब्रश करके प्लेटफोर्म पर ही हाथ मुंह धोकर खिड़की पर आकर जम गया ।
नई दिल्ली से ट्रेन रवाना होकर अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी । खिड़की से बाहर चौड़ी सजी और साफ़ सुथरी सड़कें देखकर सीना चौड़ा हो गया । मेट्रो ट्रेन तो नहीं लेकिन उसकी लाइनें देखकर ही संतोष करना पड़ा क्योंकि शायद मेट्रो ट्रेनें सुबह 6 के बाद ही चलती हैं । अभी ट्रेन को चले पंद्रह मिनट के लगभग ही हुए होंगे की तेज बदबू के झोंके ने नाक बंद करने पर विवश कर दिया । तुरंत ही एक नाला दिखाई पड़ा और उसके नजदीक मैदानों में खुले में शौच करते लोग भी दिखाई पड़े ।बदबू की वजह समझ में आ गयी थी । खिड़की छोड़कर हटते हुए भी मुझे चौंकने पर मजबूर होना पड़ा । वजह थी पुरुषों के साथ ही कुछ महिलाओं का भी खुले में शौच के लिए बैठना । ग्रामीण भारत में तो खुले में शौच का आज भी विकल्प नहीं बन पाया है, लेकिन वहाँ समाज के कुछ नियम और दायरे हैं जिनसे पुरुष और महिला दोनों ही बंधे होते हैं। आगे सोचकर ही मन खिन्न हो उठा । हमारे देश की राजधानी का यह काला सच क्या हमारे हुक्मरानों को नहीं पता ? इसके बाद सरकार के “हर घर शौचालय ‘ संकल्प की याद आ गयी । लेकिन तुरंत ही दिमाग ने यथार्थ की याद दिला दी । सरकारी नारे तो नारे हैं । इन नारों का यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं होता । मैदान के बगल में ही एक झुग्गी बस्ती भी थी और शायद ये वहीँ के निवासी रहे होंगे । जब इनके घर ही नहीं है तो ये तो शौचालय का सपना भी नहीं देख सकते ।
ट्रेन सरपट भागी जा रही थी और इसी उधेड़बुन में पता ही नहीं चला कब ट्रेन दिल्ली का शहरी क्षेत्र छोड़कर हरियाणा के ग्रामीण इलाके से गुजरने लगी । पानीपत अगला ठहराव था । पानीपत इतिहास में मराठों और अहमद शाह अब्दाली की सेनाओं के बीच सन 1761 में हुयी लड़ाई के लिए जाना जाता है । इस लड़ाई में मराठों की करारी हार हुयी थी । ट्रेन सरपट भागी जा रही थी । खिड़की से बाहर दूर दूर तक फैली खेतों की क्यारियां बरबस ही मन को मोह रही थीं । डिब्बे में स्थानीय फेरीवाली औरतें हाथों में रुमाल टी शर्ट शाल वगैरह लेकर घूम घूम कर बेच रही थी । हमारे सभी साथी अब तक जाग चुके थे । ट्रेन लुधियाना अम्बाला जालंधर को पीछे छोडती अब पठानकोट पहुँचने वाली थी ।यह पंजाब का अंतिम स्टेशन है । यहाँ से लगभग 10 किलोमीटर बाद से ही जम्मू की सीमा शुरू हो जाती है । इसके साथ ही बाहर दिखने वाले दृश्य भी आश्चर्यजनक तरीके से बदल चुके थे । यहाँ दूर-दूर तक कहीं भी खेत तो छोड़िये समतल जमीन भी नहीं दिख रही थी । पथरीले मैदान छोटी-छोटी झाड़ियाँ और कभी-कभी छोटी-छोटी पहाड़ियां दृष्टिगोचर हो रही थीं ।बिलकुल अलग ही नजारा था । हम सभी के मोबाइल के सिग्नल भी पठानकोट से निकलते ही बंद हो चुके थे । बाद में पता चला जम्मू कश्मीर की सीमा में सिर्फ पोस्टपेड सेवाएँ ही चलती हैं। दोपहर लगभग 3 बजे हम जम्मू पहुंचे । ट्रेन लगभग आधा घंटा देर से पहुंची थी जो भारतीय रेल के लिए सामान्य सी बात है । खैर हम जम्मू पहुँच चुके थे । उम्मीद के विपरीत गरम मौसम मन को खिन्न किये जा रहा था । गर्मी और उमस का सामना करते हम स्टेशन से बाहर आये ।
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क्रमशः

अपने लेखन की शुरुआत करते हुए एक संस्मरण ' काबिलियत की कसौटी पर लिखने के बाद जब आगे लिखने के लिए कोई विषय सूझ ही नहीं रहा था , यह पता ही नहीं था कि लिखना क्या होता है , कैसे लिखा जाता है बस बेमन से यह यात्रा संस्मरण लिखना शुरू कर दिया । चूँकि इसमें सोचना कुछ नहीं था सो फटाफट यह पूरी श्रृंखला लिख डाली और फिर उसके बाद ऐसा व्यस्त हुआ कि फिर इसका संपादन करने का भी समय नहीं मिला। त्रुटियों के लिए अग्रिम क्षमस्व 🙏

राजकुमार कांदु